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उ॒त्ता॒नाया॒मव॑ भरा चिकि॒त्वान्स॒द्यः प्रवी॑ता॒ वृष॑णं जजान। अ॒रु॒षस्तू॑पो॒ रुश॑दस्य॒ पाज॒ इळा॑यास्पु॒त्रो व॒युने॑ऽजनिष्ट॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uttānāyām ava bharā cikitvān sadyaḥ pravītā vṛṣaṇaṁ jajāna | aruṣastūpo ruśad asya pāja iḻāyās putro vayune janiṣṭa ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒त्ता॒नाया॒म्। अव॑। भ॒र॒। चि॒कि॒त्वान्। स॒द्यः। प्रऽवी॑ता। वृष॑णम्। ज॒जा॒न॒। अ॒रु॒षऽस्तू॑पः। रुश॑त्। अ॒स्य॒। पाजः॑। इळा॑याः। पु॒त्रः। व॒युने॑। अ॒ज॒नि॒ष्ट॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:29» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:32» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् पुरुष (चिकित्वान्) बुद्धिमान् ! आप (उत्तानायाम्) सीधेपन से सोते हुए मनुष्य के तुल्य वर्त्तमान भूमि में जो (प्रवीता) बहुत व्याप्त बिजुली (वृषणम्) वृष्टिकर्त्ता सूर्य्य को (जजान) उत्पन्न करती है उसको (अव) (भर) धारण करो और जो (अरुषस्तूपः) मर्मस्थलों में क्लेशदायकों में प्रशंसायुक्त (अस्य) इस संसार के (पाजः) बल के (रुशत्) नाशकारक (इडायाः) वाणी के (पुत्रः) पुत्र के सदृश स्थित (वयुने) विज्ञान में (अजनिष्ट) उत्पन्न होता है उसको (सद्यः) शीघ्र धारण करो ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य पुत्र को माता के तुल्य अग्निविद्या को धारण करते हैं, वे अपना बल बढ़ाकर विज्ञान को उत्पन्न करते हैं और जब नीचे के भाग में अग्नि ऊपर जल स्थित करके वायु से प्रज्वलित करते हैं, तब अग्नि और जल द्वारा बहुत से कार्य सिद्ध कर सकते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे विद्वन् चिकित्वांस्त्वमुत्तानायां या प्रवीता वृषणं जजान तामवभर। योऽरुषस्तूपोऽस्य पाजो रुशदिडायास्पुत्रो वयुनेऽजनिष्ट तं सद्योऽवभर ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत्तानायाम्) सरलतया शयानो मनुष्य इव वर्त्तमानायां भूमौ (अव) (भर) धर। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (चिकित्वान्) प्राज्ञः (सद्यः) (प्रवीता) प्रकर्षेण व्याप्ता विद्युत् (वृषणम्) वर्षकं सूर्य्यम् (जजान) जनयति (अरुषस्तूपः) येऽरुष्षु मर्मसु सीदन्ति तेषु प्रशंसितः (रुशत्) हिंसन् (अस्य) जगतः (पाजः) बलम् (इडायाः) वाण्याः। इडेति वाङ्ना०। निघं० १। ११। (पुत्रः) पुत्रवद्वर्त्तमानः (वयुने) विज्ञाने (अजनिष्ट) जायते ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः पुत्रं जननीव वह्निविद्यां धरन्ति ते स्वबलं वर्धयित्वा विज्ञानं जनयन्ति। यदा अधोऽग्निरुपरिजलं संस्थाप्य वायुना प्रदीपन्ति तदा वह्निजलाभ्यां बहूनि कार्याणि निर्वर्त्तितुं शक्नुवन्ति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माता जशी पुत्राला धारण करते तशी जी माणसे अग्निविद्या धारण करतात, ती आपले बल वाढवून विज्ञान उत्पन्न करतात. जर खालच्या भागात अग्नी व वर जल स्थित करून वायूने प्रज्वलित केले तर अग्नी व जलाद्वारे पुष्कळ कार्य सिद्ध होऊ शकते. ॥ ३ ॥